Friday, October 29, 2010

भाषा का छलात्कार

अमेरिकी संस्था ‘लिविंग टॉंग्स इंस्टीट्यूट फॉर इंडेजर्ड लैंग्यूजेज’ के निदेशक ग्रेगरी एंडरसन ने अक्टूबर 2010 के पहले सप्ताह में एक ऐसी बोली के मौजूद होने की जानकारी दुनिया को दी जो पूर्वोत्तर भारत के पहाड़ी इलाके के एक सुदूर गांव किचांग में बोली जाती है। करीब दो साल पहले ग्रेगरी और उनके अमेरिकी साथी के. डेविड हैरिसन रांची विश्वविद्यालय के भाषा विज्ञानी गणष मुरमु के साथ जब उस गांव में पहुंचे तो उन्हें जो बोली सुनाई पड़ी वह पहली नजर में ‘अक्का’ बोली जैसी लगी लेकिन कुछ ही देर में वे समझ गए कि यह बोली कुछ अलग है। बाद में पता चला कि उस बोली को स्थानीय भाषा में ‘कोरो’ कहते हैं। लंबे शोध के बाद वे इस नतीजे पर पहुंचे कि किसी जमाने में इस इलाके में कोरो खूब बोली जाती थी लेकिन अब दो-चार गांवों तक सिमट गई है। इसे बोलने वालों की संख्या हजार से भी कम है।
अक्टूबर 2010 के दूसरे सप्ताह में हमारे मित्र और देश के जाने माने पत्रकार अजीत अंजुम ने सोशल साइट फेशबुक पर भोजपुरी, बज्जिका और अंगिका के कुछ ऐसे शब्द डाले जो अब सामान्य प्रचलन में नहीं हैं लेकिन 20 साल पहले तक हमारे जैसे लोग भी उन शब्दों का भरपूर उपयोग किया करते थे। उसके बाद तो फेशबुक पर ऐसे शब्दों का तांता लग गया। जिसे जो याद था, वह डाला। लेकिन सवाल यह उठता है कि ये शब्द कब तक जिंदा रहेंगे? मेरी बात से बहुत से लोग सहमत होंगे कि मौजूदा पीढ़ी के साथ बहुत से शब्द गायब हो जाएंगे। स्वाभाविक रूप से जब शब्द समाप्त होते हैं तो बोलियां समाप्त होने लगती हैं। बोलियां समाप्त होती हैं तो भाषा पर संकट के बादल गहराते हैं।
...और जो लोग मेरी बात से सहमत न हों, उनके लिए यह वैज्ञानिक तौर पर प्रमाणित और विशलेषित आंकड़ा मौजूद है कि हर दूसरे सप्ताह दुनिया की अब तक ज्ञात करीब 7000 बोलियों में से कोई एक न एक काल का शिकार हो जाता है, उसका वजूद समाप्त हो जाता है। हिंदुस्तान के बारे में तो कहावत ही है कि यहां हर दस ‘कोस’ पर बोली बदल जाती है। अब जरा ‘कोस’ शब्द पर ही गौर कीजिए। यह दूरी की गणना का मापक है। कोई तीस-पैंतीस साल पहले जब मैं गांव में था तब दूरी सामान्य तौर पर कोस में ही मापी जाती थी लेकिन गांवों में भी अब कोस शब्द समाप्त हो रहा है और इसकी जगह ले ली है किलो मीटर ने। जानकारी के लिए बता दें कि एक कोस का मतलब होता है करीब 2.25 किलो मीटर। ‘कोस’ शब्द हिंदुस्तान में करीब तीन हजार साल से प्रचलित रहा है लेकिन अंग्रेजी ने इसे भी भूली-बिसरी राह पर ढ़केल दिया। ऐसा बहुत से शब्दों के साथ हुआ है।
वास्तव में हाल के तीस-चालीस सालों में भाषा के साथ जो खिलवाड़ हुआ है, वह बेहद दर्दनाक है। सवाल यह उठता है कि ऐसा क्यों और कैसे हुआ? इसके लिए हमें इतिहास में पीछे लौटना होगा। मुस्लिम आक्रमणकारियों ने जब हिंदुस्तान को गुलाम बनाया तब उनका मकसद केवल लूटपाट और अपने धर्म को स्थापित करना था। भाषा पर उस दौर में भी हमले हुए लेकिन वह हमला बौद्धिक नहीं था इसलिए नुकसान केवल इतना हुआ कि संस्कृतनिष्ठ हिंदी का स्वरूप बदलने लगा। देवभाषा कही जाने वाली संस्कृत थोड़ी पिछड़ने लगी और हिंदी का सरलीकरण शुरु हो गया। चूंकि अहिंदी भाषी प्रदेशों में भी हिंदी को फैलाना था इसलिए हिंदी का सरल होना जरूरी भी था। लेखन में भी बोलचाल की हिंदी का प्रयोग शुरु हो गया। हिंदी के साथ उर्दू का प्रयोग शुरु हुअ लेकिन यह हिंदी के लिए श्रृंगारिक रूप से कुछ हद तक मददगार भी रहा।
इसके बाद आए अंगरेज। उन्होंने करीब 200 सालों तक हिंदुस्तान पर राज किया और इसे इंडिया बनाने की हर फितरत को अंजाम दिया। आज यह देश हिंदुस्तान कम और इंडिया ज्यादा है। अंग्रेजों ने बड़ी चालाकी से हमारी संस्कृति पर हमला किया। कहावत भी है कि किसी की संस्कृति को बदलना हो तो उसकी वेशभूषा और भाषा बदल दो! ...हमारा पायजाम कब बेलबॉटम और फिर जींस में तब्दील हो गया, पता ही नहीं चला! ...और हिंदी कब हिंगलिश में तब्दील होने लगा, भनक तक नहीं लगी। जब भनक लगी तब तक बहुत देर हो चुकी थी और समाज हिंगलिश के रंग में रंगने लगा था। इसे आप छलात्कार भी कह सकते हैं।
शुुरुआत कॉन्वेंट स्कूल से
भाषा के साथ खिलवाड़ की शुरुआत सबसे पहले इस देश में कॉन्वेंट स्कूलों ने की। अंग्रेजों ने अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए इस तरह के स्कूल खोले थे। जाते-जाते वे हमारे भीतर यह भावना भर गए कि हमें भी अंग्रेजों जैसा होना चाहिए। भावना प्रबल होती गई और देश में कॉन्वेंट स्कूलों की बहार आ गई। इन स्कूलों में पढ़ाने वालों में ज्यादातर वो लोग थे जिन्हें कहीं नौकरी नहीं मिल रही थी और भाषाई रूप से न वे अंग्रेजी में पारंगत थे और न ही हिंदी में। ऐसे ही एक कॉन्वेंट स्कूल में मैं भी पढ़ा

हूं इसलिए हकीकत को अच्छी तरह से जानता हूं। ऐसे कॉन्वेंट स्कूलों में पढ़ी ऐसी नस्ल निकलनी शुरु हुई जिसे हम सामान्य भाषा में अधकचरा कह सकते हैं। इसने अपनी सुविधा के लिए हिंदी और अंग्रेजी का घालमेल शुरु कर दिया।
बहुराष्टÑीय कंपनियों का हमला
इसी बीच विश्व बाजार खुला और आबादी की हमारी भीड़ ने बहुराष्टÑीय कंपनियों को आकर्षित किया। इन कंपनियों के ऐसे युवाओं को अपना निशाना बनाया जो भाषाई रूप से कंगाल है और अमेरिकी युवाओं की तरह खुल्ला हो जाना चाहता है। बहुराष्टÑीय कंपनियों ने विज्ञापन को अपना माध्यम बनाया और तेजी से फैल रहे इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर करीब-करीब कब्जा कर लिया। लुभावने विज्ञापनों ने पूरी पीढ़ी को अपना मुरीद बना लिया। तब तक अखबारों में भाषा के साथ खिलवाड़ प्रारंभ नहीं हुआ था। अखबारों को जब विज्ञापन का यह बड़ा बाजार दिखा तो युवाओं को आकर्षित करने की कोशिशें शुरु हुई। लक्ष्य यह था कि बहुराष्टÑीय कंपनियों को लुभाया जाए। इसी क्रम में भाषा पर हमले शुरु हो गए। हिंदी के अखबारों में अंग्रेजी की हेडिंग और अंग्रेजी के शब्दों का इस्तेमाल इसी का परिणाम है।
हालात बेहद नाजुक
मौजूदा दौर में ज्यादातर हिंदी अखबार केवल हिंदी के नहीं हैं। उन्हें आप भाषाई दोगलेपन का शिकार कह सकते हैं। मैंने पिछले पांच वर्षों के दौरान कम से कम दो सौ बिल्कुल युवा और नवागत पत्रकारों के साथ काम किया है या यूं कह लें कि उनके लेखन के अत्यंत निकट रहा हूं। मुझे यह कहने में कोई संकोच नहीं है कि उनमें से मुश्किल से तीन या चार ही ऐसे मिले जिन्हें मैं भाषाई तौर पर शुद्ध कह सकूं। भाषा विन्यास की बात तो बहुत दूर की बात है, उनके लेखन में मात्राओं की इतनी गलतियां होती हैं कि आप उनक मूल लेखन को अखबार में स्थान दे ही नहीं सकते। मुझे पत्रकारिता का वह दौर याद है जब मैं नईदुनिया में हुआ करता था। तब एक शब्द भी यदि अखबार में गलत छप जाता था तो अगले दिन तूफान जैसी स्थिति होती थी। वहां सरोजकुमार जी पत्रकारों को हिंदी पढ़ाया करते थे। अखबार भाषाई रूप से इतने सबल हुआ करते थे कि बहुत से लोग अखबार पढ़कर शुद्ध हिंदी लिखना सीखते थे। ...अब उसकी केवल भूली बिसरी यादें शेष हैं। भाषा के साथ छलात्कार जारी है!

2 comments:

  1. बिलकुल ठीक कहा है.

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  2. आपका प्रोफाइल बहुत ज़ोरदार है..

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